ना जाने क्या था तुम्हारी आँखों में
जिसे मैं प्यार समझ बैठा|
तुम्हारी मेहरबानिया थी मुझपे
और मैं इकरार समझ बैठा|
टुटा था मेरा अपना दिल मैं
घुंघरू की आवाज़ समझ बैठा|
निकला था ज़नाज़ा अपनों का
मैं किसीका निकाह समझ बैठा|
छुआ था तन्हाई ने जिस्म को
और मैं तेरा हाथ समझ बैठा|
डाला था किसीने ने कफ़न मुझपर
और मैं तेरा हिजाब समझ बैठा|