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Thursday, October 15, 2009

घर का दिया घर जलाये.............

घर का दिया घर जलाये तो क्या करुँ
ज़िन्दगी मुझको भूल जाए तो क्या करूँ


शाम की अदाओं में दिल नही लगता,
लाख चेहरों में वो चेहरा नही दिखता,
किस उम्मीद की करूँ उम्मीद अब
गुल ही चमन मिटाए तो क्या करूँ
घर का दिया घर जलाये.............


कोशिशों से वाबस्ता हैं फ़साने मेरे,
कुर्बान उसके आस्तां पे तराने मेरे,
मैं मुख्तसर दिन रात की तरह मगर
वो मुझे न समझ पाये तो क्या करूँ
घर का दिया घर जलाये............


वो लौट आते तो ज़िन्दगी लौट आती,
मेरी खल्वत में रौशनी तो मुस्कुराती,
मैं ले तो आया चाँद सितारे मगर
वो अपना वादा न निभाए तो क्या करूँ


घर का दिया घर जलाये............

ख़बर नही मिलती

तुम्हारे जाने की मुझे कोई ख़बर नही मिली
न कोई हिचकी, न कोई बेचैनी, और न ही कोई अहसास|

अब तो बस खाली़ आसमान है, और बंजर ज़मीन,
जो बरसो से किसी मौसम का इंतज़ार कर रही है|

रास्तों में खड़े पेड़, किसी चिड़िया के घरोंदे की आस में,
अपनी हरी पत्तियां खो चुके है,

और सुबह किसी मायूस बच्चे का चेहरा लिए हुए ,
मुझे जगा तो देती है, पर उदास ज़्यादा करती है|

रातें सारी अमावस की हैं , काली, बहुत काली,
और मेरी आवाज़ इनकी खामोशियों में गुम हो जाती है|

मेरे एहसास देखते है अब,तुम्हें जाते हुए,

ये सिलसिला, अब रोज दिखाई देता है,
बस, तुम्हारे आने की ख़बर नही मिलती|