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Monday, February 21, 2011

मुझे अच्छी नहीं लगतीं

किसी की झील सी आखें, मुझे अच्छी नहीं लगतीं,
किसी की फूल सी बातें,  मुझे अच्छी नहीं लगतीं !

जो मैंने ख्वाब देखा था, उसी का साथ देखा था,
ये तनहा उजड़ी हुई रातें, मुझे अच्छी नहीं लगतीं !

अधूरी रात रहती है,   अधूरा चाँद रहता है,
अधूरी सी ये सौगातें,  मुझे अच्छी नहीं लगतीं !

उसी में देखना सबको, सभी में देखना उसको,
ये दिल  के करामातें,  मुझे अच्छी नहीं लगतीं ! 

बड़ी लम्बी जिंदगानी है, बहुत लम्बी निंभानी है
दो पल की मुलाकातें,  मुझे अच्छी नहीं लगतीं ! 

वही किस्सा पुराना है,  की  सबको भूल जाना है,
ये भटकी  हुई  यादें,  मुझे अच्छी  नहीं लगतीं !

पल भर पास बैठूं, तो दिन भर मदहोश रहता हूँ,
तेरी खुशबू भरी सांसें, मुझे अच्छी नहीं लगतीं !


Thursday, February 17, 2011

यूँ ही

यूँ लगता है, चाँद उभर आया है बादलों में,

काले रंग पर, सफ़ेद फूलों के प्रिंट वाला सूट,
तुम पर बहुत अच्छा लगता है!!!!!

Friday, January 28, 2011

फूल थे

फूल थे, तो सबके पैरों तले थे,
काटों की तरह, हमने चुभना सीख लिया !

Thursday, January 27, 2011

१० दिन की छुट्टियां

एक एक पल में मीलों का सफ़र तय करते हुए,
मेरे ख्वाब, बहुत पीछे छूट गए मुझसे !
और मेरे ख्याल, मेरी ही मसरूफियत की ज़ंजीरो में बंधे
अपना दम तोड़ रहे है !

अब ना तो उगता सूरज शादाब है,
और ना ही ओस की बूंदों में कोई लज्ज़त!
गुनगुनी धुप की चादर भी नहीं है,
और शाम के खुशनुमा मंज़र भी नहीं!

मोहल्ले की बाज़ार की जीनत , खो चुकी है,
और शाम की चाय एक रूटीन है,
जिसकी चुस्कियों में एक अजीब कडवाहट है!

हफ्ते में मिली एक दिन की छुट्टी में
ये सब चीज़े खोजते हुए, मुझे एहसास हुआ
मेरी मसरूफियत, मेरा ही क़त्ल कर रही है!
और, मैं ही चश्म दीद गवाह हूँ, और ,
क़त्ल का ज़िम्मेदार भी शायद !

और साल के आखिर में मिली छुट्टियों में
मुझे मालूम हुआ की,
अपने अन्दर, रोज़ मर रहे, एक शख्स को
मैं १० दिनों में जिंदा नहीं कर सकता !!

Tuesday, December 28, 2010

मुझे बस, उदास शाम मत लिखना !

ख़त पर तुम, मेरा नाम मत लिखना
कुछ भी लिखना, अनजान मत लिखना !

अँधेरी रात या जलती दोपहर सही
मुझे बस, उदास शाम मत लिखना !

मेरी दीवानगी पे हंस लो जी भर
दिल पे अपने, नादान मत लिखना !

मुझे छोड़ कर तुम्हे जाना ही है
हो सके तो आखिरी, सलाम मत लिखना !

जो चाहो तुम वो सजा मंज़ूर है
बस मोहब्बत का, इल्ज़ाम मत लिखना !

लिए दिल में फिरता हूँ, मुझे याद है
"मेरे नाम का तुम क़लाम मत लिखना" !

घर मेरा जल गया दंगो में,और,
लोग कहते है, इसे सरेआम मत लिखना !

Wednesday, November 17, 2010

'मगहर'*

घर छोड़ दिया, गली छोड़ दी, शहर छोड़ दिया
उसको याद करने वाला, हर पहर छोड़ दिया!

मुझको ना रोक सकी, मेरी माँ की सदायें
अपने ख्वाबों की खातिर 'मगहर' छोड़ दिया!

वो चंचल, निम्मी, शेखू, नदीम, दीपक,
सुना है सभी दोस्तों ने वो घर छोड़ दिया!

विरानियाँ गूंजती होंगी मुस्कुराहटों की जगह
सुना है, बारिशों ने वो शजर छोड़ दिया!

उस दरख्त पर, ना सबा, ना पत्तियां, ना समर 
मेरी खवाशिहों ने फेका हुआ पत्थर छोड़ दिया!

इससे बेहतर तो था वो बुरा भला कहता
उसने तो मुझे कुछ ना कहकर छोड़ दिया!



 *मगहर: वो क़स्बा जहाँ मैंने बचपन के चौधह बरस गुज़ारे!

Thursday, October 21, 2010

एक शेर

तुम्हारे साए ही नज़र में बसा लिए मैंने
कुछ आखों के मुक्कदर  में ख्वाब नहीं होते !!